*मजदूर फैक्ट्री में कैद रहें या घर जाकर सुकून की जिंदगी जीएं? इस असमंजस में जीने की चाह और घर जाने की उम्मीद..!!*
मजदूरों की जिंदगी भी ऐसी हो गई कि वह ना तो घर के रहें और ना ही फैक्टरी मालिकों के बस वह सफ़र के होकर रह गए,जो एक तरफ तो पेट की भूख से तो वही कोरोना जैसी महामारी जैसी आपदा से भी डरे हुए है! यह मजदूर फैक्ट्री में कैद रहें या घर जाकर सुकून की जिंदगी जीएं? इस असमंजस में जीने की चाह और घर जाने की उम्मीद में निकले प्रवासी मजदूर अपनी मंजिल तक नहीं पहुंचेंगे यह किसी को नहीं पता था! विदित हो कि कई दिन पूर्व कुछ मजदूर सफर में थकान मिटाने की कीमत अपनी जान गंवा कर चुकाएंगे! शायद खुदा की यही मर्जी।लेकिन इस हादसे से कई सवाल भी पैदा होते है कि औरंगाबाद में हुए इस रेल हादसे का आखिरकार दोषी किसको माना जाए,मजदूरों को,जो पैदल ही घर जा रहे थे या फैक्ट्री मालिक जिन्होंने उन्हें जाने दिया? सवाल तो रेल विभाग के कर्मचारियों पर भी उठेंगे और पुलिस प्रशासन पर भी,जो उन्हें जाने से नहीं रोक सके! मृत्यु भले ही एक परम सत्य है,पर उसकी वजह भी सत्य है। बहरहाल कोरोना वायरस जैसी बीमारी से भले ही बच जाए लेकिन भूख की कमी से भी बचाया जाए!विदित हो कि पूर्व वर्ष या इस वर्ष के प्रारंभ में हुए दिल्ली के दंगे और कोरोना का कहर या फिर बात करें विशाखापत्तनम का गैस हादसा की,ऐसी तमाम दुर्घटनाएं किसी प्रलय से कम भी नहीं!!