(बौद्धिक)
आशाओं के मध्य
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-राजेश बैरागी-
सुरंग चाहे जितनी लंबी हो उसका दूसरा छोर अवश्य होता है। सुरंग के बीच में पहुंचकर डर लगता है,मन घबराता है, आशंकाएं जन्म लेती हैं, कभी उस सुरंग से बाहर न निकल पाने के नकारात्मक विचार भी घेर लेते हैं। क्या इन सभी बातों में कोई सच्चाई होती है? सभी बातों का उद्गम सत्य के गर्भ से होता है परंतु समय, परिस्थिति के अनुसार भौतिक चीजें बनती और बिगड़ती हैं। लंबी सुरंग के मध्य उत्पन्न होने वाले सारे नकारात्मक विचारों का अस्तित्व इतना ही है। सुरंग बीच में धंस सकती है और सारे नकारात्मक विचार सत्य हो सकते हैं। इसके विपरीत यह अटल सत्य है कि किसी भी सुरंग के दो छोर अवश्य होते हैं और दोनों छोरों पर आशाओं का उजाला होता है। महामारियों की आहट पर साधारण मनुष्य ध्यान नहीं देता। मनुष्य को इतने ऊंचे कान का बनाने के पीछे ईश्वर का यह उद्देश्य प्रकट होता है कि मनुष्य उसके (ईश्वर के)विधान को चुनौती देने के लिए सावधान न हो और समय पूर्व आभास से वह दुखी न हो। महामारी लंबी सुरंग जैसी हैं। उनमें घुसना हमारी विवशता है और मध्य तक पहुंचते पहुंचते अवसाद से घिर जाना,आशा छोड़ देना तथा छटपटाना, यही तो साधारण मनुष्य के लक्षण हैं। आगे बढ़ना और दूसरे छोर तक पहुंचना असाधारण होने की पहचान है। हमें साधारण से असाधारण, मध्य से दूसरे छोर तक पहुंचना ही है। ईश्वर की भी यही मर्जी है।(ष्टि हिंदी साप्ताहिि
<no title>सुरंग चाहे जितनी लंबी हो उसका दूसरा छोर अवश्य होता है। सुरंग के बीच में पहुंचकर डर लगता