पुलिस कमिश्नर प्रणाली का पहला शिकार
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-राजेश बैरागी-
उत्तर प्रदेश में प्रयोग के तौर पर दो जनपदों लखनऊ व गौतमबुद्धनगर में लागू की गई पुलिस कमिश्नर प्रणाली फिलहाल कितनी सफल है? इस सवाल को बाद के लिए छोड़ते हैं। कोरोनावायरस की आपदा से निपटने में गौतमबुद्धनगर पुलिस कमिश्नर प्रणाली और जिलाधिकारी के नेतृत्व वाले जिला प्रशासन के बीच समन्वय का अभाव साफ नजर आ रहा है।दो दिन पहले एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने आरोप लगाया कि जरूरतमंदों को राशन वितरण से लेकर अन्य कार्यों के लिए जिला प्रशासन के अधिकारी उनकी नहीं सुन रहे हैं। दूसरी ओर बगैर पुलिस के जिलाधिकारी का क्या वजूद। क्या वह केवल कलेक्टर बनकर रह सकता है।याद कीजिए पुलिस कमिश्नरी लागू होने के साथ यहां तैनात एडीएम, एसडीएम की सुरक्षा वापस ले ली गई थी। शासन तक बात पहुंचने पर सुरक्षा बहाल हुई परंतु उनपर सीधा नियंत्रण प्रशासन का नहीं रहा। एक शासन के दो अंगों के बीच बर्चस्व की लड़ाई आरंभ होने पर यही होना था और आज तक जिलाधिकारी रहे बीएन सिंह मुख्यमंत्री के कोप का शिकार हो गए। उन्हें हटा दिया गया। सूबे की आइएएस लॉबी पुलिस कमिश्नरी प्रणाली के पक्ष में नहीं है। इस संबंध में सेवानिवृत्ति और मौजूदा आइएएस अधिकारियों द्वारा कई मौकों पर मुख्यमंत्री को अपनी भावनाओं से अवगत भी करा दिया गया है। इसके इतर बीएन सिंह की एक विधायक से नजदीकी और सांसद की अनदेखी भी उनपर भारी पड़ी।नये जिलाधिकारी सुहास एलवाई के समक्ष पुलिस कमिश्नरी और सांसद विधायक दोनों से बराबर नजदीकी या दूरी बनाए रखने की चुनौती होगी। मेरी निजी राय है कि पुलिस कमिश्नरी वाले जनपदों में जिलाधिकारी पद पर वरिष्ठ आईएएस अधिकारी को नियुक्त किया जाना उचित होगा। पुलिस कमिश्नर की वरिष्ठता के समक्ष कनिष्ठ आइएएस जिलाधिकारी की कुंठा के शमन का यही एकमात्र उपाय है। नौएडा)
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