<no title>*प्रकृति से खिलवाड़ करना मूर्खता ही नहीं, पाप भी.

 


*प्रकृति से खिलवाड़ करना मूर्खता ही नहीं, पाप भी.!*


*श्वास, त्वचा पर कीटाणु तथा शरीर की गंध किसी दूसरे व्यक्ति के लिए बीमारी का कारण! 🙏केवल नतमस्तक होकर हाथ जोड़ नमस्ते का अभिवादन ही श्रेष्ठ.!🙏*


*नंबर वन बनने की दौड़ में राष्ट्रों के बीच की प्रतिस्पर्धा तथा अहंकार के चलते विश्व खतरे में!*


संपूर्ण मानव जाति आज त्राहि-त्राहि कर रही है। जब भी मनुष्य अपने अहंकार एवं मूर्खता के कारण प्रकृति के विरुद्ध काम करता है तब कोरोना विषाणु जैसी महाभंयकर आपदाओं का सामना करना पड़ता है। कुछ तामसिक वृत्ति के लोगों के कारण समस्त विश्व को दुख भोगना पड़ जाता है। आज मनुष्य की मनुष्यता समाप्त हो चुकी है। नंबर वन बनने की दौड़ में राष्ट्रों के बीच की प्रतिस्पर्धा तथा एक-दूसरे को नीचा गिरा कर अपने को बड़ा बताना या बनाना अहंकार का प्रतीक है। कुछ लोगों के अहंकार के कारण आज विश्व खतरे में है। वर्तमान युग कितना भी विकसित क्यों न हो जाए लेकिन जब प्रकृति अपनी प्रतिक्रिया करती है तब उसका सामना नहीं किया जा सकता है। प्रकृति से खिलवाड़ करना मूर्खता ही नहीं, पाप भी है। जो प्रकृति हमें जीवन देती है यदि हम उसका ध्यान नहीं रखें तो वह जीवन ले भी लेती है।
वैदिक संस्कृति आज विश्व की श्रेष्ठ संस्कृति साबित हो रही है। अभिवादन की जगह गले मिलना, हाथ मिलाना, कभी भी उचित नहीं माना जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति का श्वास, त्वचा पर कीटाणु तथा शरीर की गंध किसी दूसरे व्यक्ति के लिए बीमारी का कारण हो सकती है। इसलिए केवल नतमस्तक होकर हाथ जोड़ नमस्ते का अभिवादन ही श्रेष्ठ है।संपूर्ण मानव जाति आज त्राहि-त्राहि कर रही है। जब भी मनुष्य अपने अहंकार एवं मूर्खता के कारण प्रकृति के विरुद्ध काम करता है तब कोरोना विषाणु जैसी महाभंयकर आपदाओं का सामना करना पड़ता है। कुछ तामसिक वृत्ति के लोगों के कारण समस्त विश्व को दुख भोगना पड़ जाता है। आज मनुष्य की मनुष्यता समाप्त हो चुकी है। नंबर वन बनने की दौड़ में राष्ट्रों के बीच की प्रतिस्पर्धा तथा एक-दूसरे को नीचा गिरा कर अपने को बड़ा बताना या बनाना अहंकार का प्रतीक है। कुछ लोगों के अहंकार के कारण आज विश्व खतरे में है। वर्तमान युग कितना भी विकसित क्यों न हो जाए लेकिन जब प्रकृति अपनी प्रतिक्रिया करती है तब उसका सामना नहीं किया जा सकता है। प्रकृति से खिलवाड़ करना मूर्खता ही नहीं, पाप भी है। जो प्रकृति हमें जीवन देती है यदि हम उसका ध्यान नहीं रखें तो वह जीवन ले भी लेती है।
वैदिक संस्कृति आज विश्व की श्रेष्ठ संस्कृति साबित हो रही है। अभिवादन की जगह गले मिलना, हाथ मिलाना, कभी भी उचित नहीं माना जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति का श्वास, त्वचा पर कीटाणु तथा शरीर की गंध किसी दूसरे व्यक्ति के लिए बीमारी का कारण हो सकती है। इसलिए केवल नतमस्तक होकर हाथ जोड़ नमस्ते का अभिवादन ही श्रेष्ठ है।भारतीय संस्कृति विश्व के लिए आदर्श रही है। लेकिन लंबे समय के विदेशी आक्रमण तथा उनके प्रभाव के कारण हम अपने अस्तित्व तथा स्वभाव को भूल कर दूसरों का अनुसरण करने लगे हैं, जो हमारे लिए दुख का कारण बना है। अभी भी समय है संभल जाने का अन्यथा मानवता की डूबती नाव का दोष हम भारतीयों पर ही लगेगा। हमारी संस्कृति में कहीं भी किसी भी व्यक्ति के प्रति भेदभाव नहीं था। कोई ऊंची तथा कोई नीची जाति का भी विधान नहीं था। हमारे जीवन का लक्ष्य केवल अर्थ और काम नहीं बल्कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष था। हमारी संस्कृति पूर्ण थी, पूर्ण है और यदि न संभले तो बिखर जाएगी। हमारे यहां पर्वतों, नदियों, वृक्ष को देवताओं की श्रेणी में इसलिए रखा जाता था कि यह सभी जड़ होते हुए भी मनुष्य को जीवन प्रदान करते हैं। जानवरों में जीवन है लेकिन मनुष्य ने उन्हें भी अपने समतुल्य समझकर उनको भी देवताओं के रूप में पूजा क्योंकि उनके बगैर सृष्टि का चक्र नहीं चल सकता है।


विश्व में केवल एकमात्र संस्कृति-सभ्यता भारतीयों की है कि जैसी आत्मा मनुष्य में है, वैसी ही आत्मा वृक्षों तथा अन्य जीवो में भी है। यहीं से अहिंसा के सिद्धांत का जन्म होता है।हमारा देश भी देख चुका है कि पाश्चात्य जगत ने जो भौतिकता की पराकाष्ठा स्थापित की है, वह मनुष्य के लिए हानिकारक सिद्ध हुई है। कंक्रीट के जंगल, अप्राकृतिक जीवन, केवल धन की अंधी दौड़, जीवन का लक्ष्य केवल भोगवादी विचार, केवल एक ही जीवन की कल्पना तथा पाप-पुण्य से दूर आदि विचारों को देखकर भारतीय मन समझ चुका है कि यदि जीवन सुखी बनाना है तो अपनी जड़ों की ओर लौटना ही पड़ेगा। इसलिए आज का युवा प्रश्न करता है कि परम सुख शांति का मार्ग क्या है ?बहुत बड़ी संख्या में युवा आज अपने मूल स्वभाव से प्रेम करने लगा है।
पहले वह कभी-कभी दूसरों को खुश करने के लिए अपने पूर्वजों तथा संस्कृति का मजाक उड़ा दिया करता था लेकिन वह अब जो सत्य प्रकृति के अनुकूल है उसका समर्थन करता है। अपने संस्कारों को अपनाकर उनका पालन करता है। कोरोना वायरस जैसी महामारी ने पूरे विश्व की आंखों को साफ करने का काम किया है। प्रकृति से प्रेम उसकी रक्षा तथा आपस में प्रतिस्पर्धा की भावना मनुष्यता तथा प्रकृति का हनन करती है इसलिए आज हम सभी को वापस प्रकृति की गोद में जाना चाहिए। आपस में किसी भी प्रकार का द्वेष ना रखते हुए प्रेम पूर्वक जीवन का भरपूर आनंद उठाना चाहिए।
आइए हम मानवीय संस्कृति वेदों की ओर लौट जाएं। दुख से बचने के लिए शांति पाठ करें। यह महामारी आधिदैविक श्रेणी में आती है। इससे बचने के लिए संयम तथा शौच का पालन और ईश्वर से प्रार्थना प्रात: सायं करते रहना चाहिए। इसके अलावा यज्ञ द्वारा अद्भुत औषधियों की आहुति दें। ऐसा करने से घर- परिवार तथा पड़ोस तक के वातावरण को शुद्ध तथा निर्मल बनाया जा सकता है।